राजस्थान की जनजातियां (Tribes of Rajasthan)

राजस्थान में लगभग 12 जनजातियां (Tribes of Rajasthan) निवास करती है। जिनमे से मीणा और भील जनजाति प्रमुख है, हमने यहाँ आपको राजस्थान की हर प्रतियोगी परीक्षा के हिसाब से राजस्थान की जनजातियों के बारे में सम्पूर्ण विवरण दिया है।

All Tribes of Rajasthan

  1. मीणा जनजाति
  2. भील जनजाति
  3. गरासिया जनजाति
  4. सहरिया जनजाति
  5. कथौड़ी जनजाति
  6. डामोर जनजाति
  7. धानका जनजाति
  8. कोकना-कोकनी जनजाति
  9. कोली-ढोर जनजाति
  10. नायकड़ा-नायका जनजाति
  11. पटेलिया जनजाति
  12. भील-मीणा जनजाति

Tribes of Rajasthan | राजस्थान की जनजातियां

राज्य का समूचा दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र जनजाति (Tribes) बहुल क्षेत्र है। इस क्षेत्र में बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं सिरोही जिले के क्षेत्र सम्मिलित हैं जो अरावली पर्वत श्रृंखला के अंतर्गत आते हैं।

राजस्थान में 12 प्रकार की जनजातियाँ पाई जाती है, इनमें मीणा, भील, गरासिया, सहरिया, कथौड़ी, डामोर आदि मुख्य हैं। अन्य जनजातियों में धानका, कोकना-कोकनी, कोली-ढोर, नायकड़ा-नायका, पटेलिया, भील-मीणा आदि है।

मीणा जनजाति

मीणा जनजाति राजस्थान की सबसे बड़ी जनजाति है। यह जनजाति आर्यों के आगमन से पूर्व ही भारत में निवास करती थी। मीणा जाति को जैन मुनि मगर सागर ने अपने ग्रंथ मीणा पुराण में भगवान मीन का वंशज बताया है। इस जनजाति का चिन्ह’मीन’ (मछली) था।

राज्य की प्राय: सभी जनजातियों में केवल मीणा जनजाति के लोगों ने ही अपने जनजातीय स्वरूप को भेदकर बाहर आने एवं विकास करने में पहल की है। जनजातियों में यह जाति सर्वाधिक सम्पन्न एवं शिक्षित है।

मीणा जनजाति के लोग मुख्यत: उदयपुर, जयपुर, प्रतापगढ़, स करती सवाईमाधोपुर, अलवर, सीकर व चित्तौड़गढ़ जिलों में निवास थिमीणा करते हैं।

मीणा लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन कृषि एवं पशुपालन ही है।

मीणा जनजाति मुख्यतः शक्ति की उपासक है। ये सीकर की बाणमाता की पूजा करते हैं परन्तु भरतपुर क्षेत्र की मीणा जनजाति दुर्गा-पूजक है।

भील जनजाति

भील राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति है। शिकार, वनौपज का विक्रय तथा कृषि इनकी आजीविका के मुख्य साधन है।

दक्षिणी राजस्थान के बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर एवं वेशभू चित्तौड़गढ़ जिले की प्रतापगढ़ तहसील में इनका बाहुल्य है। फेटा 

भीलों के घर ‘टापरा’ या ‘कू’ कहलाते हैं। सामान्यत: भीलों घुटन में बाल-विवाह प्रचलित नहीं है।

विधवा विवाह प्रचलन में है लेकिन छोटे भाई की विधवा को बड़ा भाई अपनी पत्नी नहीं बना सकता।

वेशभूषा

भील पुरुष सिर पर लाल, पीला अथवा केसरिया फेटा (साफा), बदन पर अंगरखी, कमीज या कुर्ता तथा घुटनों तक ढेपाड़ा (धोती) बाँधते हैं। भील महिला लूगड़ा, काँचली, कब्जा, घाघरा अथवा पेटीकोट पहनती है।

गरासिया जनजाति

इस जाति का बाहुल्य सिरोही जिले की आबूरोड़ एवं पिंडवाड़ा तहसील, पाली जिले की बाली तथा उदयपुर जिले की गोगुन्दा तथा कोटड़ा तहसील में है। आबूरोड़ का भाखर क्षेत्र गरासियों का मूल प्रदेश माना जाता है। कर्नल जेम्स टॉड ने गरासियों की उत्पत्ति ‘गवास’ शब्द से मानी है जिसका अभिप्राय सर्वेन्ट होता है।

गरासियों के घर ‘घेर’ कहलाते हैं। गरासिया लोग अधिक रंग बिरंगे एवं चटकीले वस्त्र पहनने के विशेष शौकीन होते हैं। सौंदर्य वृद्धि के लिए गोदने गुदवाने की प्रथा है।

आबू की नक्की झील में ये अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन करते हैं। अंबाजी के पास कोटेश्वर का मेला, देलवाड़ा के पास चेतर विचितर मेला तथा वैसाख कृष्णा पंचमी को सियावा गाँव का गणगौर मेला इनके महत्त्वपूर्ण मेले हैं।

बांसुरी, नगाड़ा, अलगोजा गरासियों के प्रिय वाद्य हैं। • लूर, घूमर, वालर, कूद, मांदल, गौर, जवारा नृत्य, मोरिया नृत्य आदि गरासियों के मुख्य नृत्य हैं।

गरासिया अनाज का भंडारण कोठियों में करते हैं जिन्हें ‘सोहरी’ कहा जाता है। गरासिया समाज मुख्यतः एकाकी परिवारों में विभक्त होता है। गरासियों की भाषा गुजराती, भीली, मेवाड़ी एवं मारवाड़ी का मिश्रण कहा जा सकता है।

भील गरासिया – यदि कोई गरासिया पुरुष किसी भील स्त्री से विवाह कर लेता हो तो ऐसे परिवार को भील गरासिया यदि भील पुरुष किसी गरासिया स्त्री से विवाह कर लेता है तो ऐसा परिवार गमेती गरासिया परिवार कहलाता है।

गरासियों में प्रेम विवाह बहुत प्रचलन में है। कृषि इनके जीवनयापन का मुख्य आधार है।

पहनावा – गरासिया पुरुष एक धोती, एक झूलकी (कमीज) और सिर पर साफा (फेंटा) बाँधता है। हाथों में ‘भाटली’, गले में ‘पत्रला’ अथवा हँसली और कानों में ‘झेले’ अथवा ‘मुरकी’ पहनते हैं। स्त्रियाँ लाल रंग का घाघरा, झूलकी व ओढ़णी पहनती हैं। कुँआरी लड़कियाँ लाख की चूड़ियाँ व विवाहित स्त्रियाँ हाथीदांत की चूड़ियाँ पहनती हैं।

गरासिया स्त्रियाँ अत्यधिक शृंगार प्रिय होती है। स्त्रियाँ सिर पर चाँदी का बोर, कानों में ‘डोरणे’ या ‘टोटी’, गले में ‘बारली’, • बालों में ‘दामणी’ (झेले) तथा नाक में ‘काँटा’ (नथ), हाथों में धातु की गूजरी और पैरों में ‘कडुले’ पहनती हैं।

सहरिया जनजाति

सहरिया जनजाति मध्यप्रदेश की सीमा से लगी बारों जिले की तहसीलो शाहाबाद और किशनगंज में ही अवस्थित है। 

सहरिया जनजाति एक वनवासी जनजाति है।

यह समुदाय शैक्षिक, आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है। सर्वाधिक पिछड़ी जनजाति होने के कारण भारत सरकार ने राज्य में केवल इसी जनजाति को ‘आदिम जनजाति समूह’ (Primitive Tribal Group) की सूची में रखा है।

सहरिया लोगों की बस्ती को ‘सहराना’ के नाम से पुकारा जाता है। सहराना के बीच में एक छतरीनुमा गोल या चौकोर झोपड़ी या ढालिया बनाया जाता है जिसे ‘हथाई’ या ‘बंगला’ कहते हैं। यह सहरिया समाज की सामुदायिक सम्पत्ति होती है।

सहरिया समाज की प्रमुख विशेषताएँ –

  • सहरियों के घरों को ‘टापरी’ कहते हैं। सहरिए शिकार पर निर्भर रहते हैं।
  • जंगली फलों व वनोपजों को संग्रह कर अपने काम में लेते हैं या अनाज के बदले बेच देते हैं।
  • अनाज तथा अन्य घरेलू सामान को सुरक्षित रखने के लिए सहरिया मिट्टी व गोबर से सुंदर एवं कलात्मक कोठियाँ बनाते हैं। छोटी कोठी को ‘कुसिला’ तथा आटा रखने की कोठी को ‘भडेरी’ कहा जाता है। 
  • वनों में निवास करने वाले सहरिया पेड़ों पर या बल्लियों पर मचाननुमा छोटी झोपड़ी ‘गोपना’, ‘कोरुआ’ या ‘टोपा’ बनाते हैं।
  • पिता की मृत्यु पर ज्येष्ठ पुत्र परिवार का मुखिया बनता है। ‘पंचायत’ सहरिया समुदाय की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है जिसके तीन स्तर- ‘पंचताई. एकदमिया व चौरासिया’ होते है। चौरासिया पंचायत सबसे बड़ी पंचायत है जिसकी बैठक सामान्यतः सीताबाड़ी स्थान पर वाल्मिकी मंदिर में होती है।
  • सहरिया समुदाय में नारी को व्यवहारिक रूप से पूर्ण प्राथमिकता एवं स्वतंत्रता प्राप्त है। लड़की के विवाह में लड़की के पिता को दापा या वधू मूल्य प्राप्त होता है।
  • सहरिया समाज में सहराने का पटेल विवाह की सभी रस्मों को पूर्ण करता है। समुदाय में नाता प्रथा प्रचलित है।
  • विधवा विवाह भी प्रचलित है। सहरिया परिवार की कुलदेवी ‘कोड़िया देवी’ है। तेजाजी व भैरव इनके प्रिय लोकदेवता हैं. जिनका चबूतरा लगभग प्रत्येक सहराने के बाहर देखने को मिल सकता है।
  • सहरिया जनजाति क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा पर कपिलधारा का मेला भरता है। बैसाखी अमावस्या पर इस क्षेत्र का आश्रम सबसे बड़ा मेला केलवाड़ा के निकट सीताबाड़ी (बारों) में तेजा मेला भरता है। सीताबाड़ी में स्थित वाल्मिको अ और वाल्मिकी मंदिर सहरियों का सबसे बड़ा तीर्थस्थल है। ये लोग वाल्मिकी को अपना आदिगुरु मानते हैं।
  • मकर संक्रांति पर लकड़ी के डंडों से ‘लेंगी’ खेला जाता है। वेशभूषा- पुरुष वर्ग अंगरखी (सलुका), घुटनों तक उससे धोती (पंछा), कुर्ता, कमीज, साफा (खपटा) पहनते हैं। विवाहित महिलाएँ एक विशेष वस्व रेजा’ पहनती हैं। सहरिय स्त्रियाँ गोदना गुदवाने की बड़ी शौकीन होती हैं लेकिन पुरुष वर्ग में गोदना वर्जित हैं।
  • धारी संस्कार मृत्यु के तीसरे दिन मृतक की अस्थियाँ राख एकत्र कर रात्रि में साफ आँगन में बिछाकर ढक देते हैं एवं दूसरे दिन उसे देखते हैं।

कथौड़ी जनजाति

कथौड़ी लोग उदयपुर जिले की कोटड़ा, झाड़ोल एवं सराड़ा पंचायत समिति में बसे हुए हैं। ये कत्था बनाने में दक्ष होते हैं।

राज्य की अन्य सभी जनजातियों की तुलना में इस जनजाति के लोगों का शैक्षिक एवं आर्थिक जीवन स्तर अत्यधिक निम्न है।

इन्हें शराब सर्वाधिक प्रिय है। इनकी स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ बराबर से शराब पीती हैं। कठोड़ी जंगलों में रहने वाली एक ऐसी जनजाति है, जो स्वभावतः अस्थायी एवं घुमन्तु जीवन जीती रही है।

परिवार आत्म केन्द्रित होते हैं। व्यक्ति शादी होते ही अपने मूल के परिवार से अलग हो जाता है। स्त्रियाँ मराठी अंदाज में साड़ी पहनती हैं, जिसे फड़का कहते हैं। गहना पहनने का कोई रिवाज नहीं है।

इनके प्रमुख परम्परागत देवता ड्रॅगर देव, वाद्य देव, गाम देव, जो भारी माता, कन्सारी देवी आदि हैं।

डामोर जनजाति

सर्वाधिक डामोर डूंगरपुर जिले में हैं। इसके पश्चात बाँसवाड़ा व उदयपुर जिले में क्रमश: सर्वाधिक डामोर रहते हैं। डूंगरपुर • जिले की सीमलवाड़ा पंचायत समिति में सर्वाधिक डामोर हैं। यह क्षेत्र डामरिया क्षेत्र भी कहलाता है। 

विशेषताएँ – 

  • डामोरों में एकाकी परिवार में रहने की प्रथा है। पुत्र का विवाह होने के उपरान्त उसके लिए अलग से घर की व्यवस्था कर दी जाती है। माता-पिता प्रायः छोटे पुत्र के साथ रहना पसंद करते हैं। परिवार का मुखिया पिता होता है।
  • डामोर गुजरात राज्य के प्रवासी होने के कारण स्थानीय भाषा के साथ-साथ गुजराती भाषा का भी प्रयोग करते हैं। नील इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। यह जनजाति कभी भी वनों पर आश्रित नहीं रही।

महत्त्वपूर्ण तथ्य – आदिवासी अपने धर्मगुरु को ‘महाराज’ या ‘भगत’ के नाम से पुकारते हैं।

जनजातीय समुदाय की परम्पराएँ – 

  • हलमा – हलमा, हाँडा या हीड़ा के नाम से पुकारी जाने सामुदायिक सहयोग की बाँसवाड़ा-डूंगरपुर क्षेत्र के आदिवासियों की एक विशिष्ट परम्परा है।
  • वार – जनजाति समुदाय की यह अद्भुत परम्परा सामूहिक सुरक्षा की प्रतीक है। इसमें ‘मारूढोल’ के द्वारा लोगों तक संदेश पहुँचाया जाता है। ‘मारूढोल’ विपत्ति का प्रतीक माना जाता है। ढोल की वाज सुनकर दूर-दूर तक छितराई बस्ती के सभी लोग संकटग्रस्त स्थान की ओर अपने-अपने साधन एवं हथियार लेकर तुरन्त दौड़ पड़ते हैं और किसी भी विपत्ति में ये लोग हर प्रकार का सहयोग कर उस व्यक्ति की मदद करते हैं।
  • भराड़ी – राजस्थान के दक्षिणांचल में भीली जीवन में व्याप्त • वैवाहिक भित्ति चित्रण की प्रमुख लोक देवी ‘भराड़ी’ के नाम से जानी जाती है। इसका प्रचलन मुख्यत: कुशलगढ़ क्षेत्र की ओर है। जिस घर में भील युवती का विवाह हो रहा होता है, र उस घर में ‘भराड़ी’ का चितराम जँवाई द्वारा बनाया जाता है।
  • झगड़ा’ राशि – जब कोई व्यक्ति दूसरे की स्त्री को भगा ले जाने या स्वयं स्त्री अपने पति को त्याग कर दूसरे पुरुष के साथ (नाते) चली जाती है, तो विवाहित पुरुष उस दूसरे पुरुष से एक राशि लेता है, जिसका निर्णय पंचायत करती है। इसे ‘झगड़ा राशि’ कहते हैं। यह प्रथा नाता प्रथा कहलाती है। 
  • नंद ”छेड़ा फाड़ना’ या तलाक – जो भील अपनी स्त्री का त्याग करना चाहता है, वह अपनी जाति के लोगों के सामने नई साड़ी के पल्ले में रुपया बाँधकर उसको चौड़ाई की तरफ से फाड़कर स्त्री को पहना देता है।
  • नातरा प्रथा – आदिवासियों में विधवा स्त्री का पुनर्विवाह नातरा कहलाता है।
  • लोकाई – आदिवासियों में मृत्यु पर जो भोज दिया जाता है उसे ‘कांदिया’ अथवा ‘लोकाई’ कहा जाता है। 
  • दापा– आदिवासी समुदायों में वर पक्ष द्वारा वधू के पिता को दापा (वधू मूल्य) देने की प्रथा प्रचलित है।

हमेलो – जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग एवं माणिक्य लाल के वर्मा आदिम जाति शोध संस्थान, उदयपुर द्वारा आयोजित किया जाने वाला आदिवासी लोकानुरंजन मेला।

माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर: जनजाति विकास के क्षेत्र में अनुसंधान, प्रशिक्षण, नीति विश्लेषण और परामर्श सेवाओं के लिए इस बाई संस्थान की स्थापना की गई।

राजस्थान जनजाति क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ (राजजसंघ) –  आदिवासियों को बिचौलियों, व्यापारियों तथा साहूकारों के शोषण से मुक्ति दिलाने, उनके द्वारा उत्पादित माल और संकलित वन उपज का समुचित मूल्य दिलवाने और बैकों से ऋण दिलवाने के लिए स्थापित संस्था राजससंघ दूंगरपुर, उदयपुर, बाँसवाड़ा, सिरोही व बारों जिलों में कार्य करता है।

‘सहरिया वनों की ओर’ योजना –  सहरिया आदिवासियों वनों से पुन: जोड़ने हेतु बनाई गई योजना।


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